Wednesday, 30 December 2015

प्रार्थना (ईश्वर को देखा तो नहीं पर जब कोई आवश्यकता होती है उस का नाम खुद याद आ जाता है )



**प्रार्थना का महत्व: 

**1. प्रार्थना और कर्म**

प्रार्थना का अर्थ यह नहीं है कि आप कर्म छोड़कर मंदिर में बैठे रहें और आरती करते रहें। प्रार्थना का उद्देश्य आंतरिक संबल प्राप्त करना है, जिससे व्यक्ति को कर्म करने की प्रेरणा, उत्साह और आशा मिलती है। यह व्यक्ति के विचारों को सकारात्मक बनाकर नकारात्मक भावों को नष्ट करती है। प्रार्थना के साथ कर्म करना आवश्यक है, क्योंकि प्रार्थना का स्थान कर्म नहीं ले सकता।

**2. प्रार्थना की भूमिका**

प्रार्थना व्यक्ति को भाग्यवादी नहीं बनाती। सभी धर्मों में प्रार्थना का महत्व इसी कारण है कि यह व्यक्ति को निरंतर प्रयासरत रहने की प्रेरणा देती है। प्रार्थना के मूल में यही भाव है कि व्यक्ति का किया गया कर्म कभी निष्फल नहीं जाएगा। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भी यही कहा है कि कर्म का फल अवश्य मिलता है।

**3. प्रार्थना का शाब्दिक अर्थ और प्रभाव**

प्रार्थना का शाब्दिक अर्थ है विशेष अनुग्रह की चाह। प्रार्थना के समय व्यक्ति अपने इष्ट के सम्मुख निवेदन करता है, जिससे उसका मन निर्मल होता है। नित्य प्रार्थना से मस्तिष्क स्वस्थ होता है और मनोविकार नष्ट होते हैं। यह व्यक्ति को विनम्र बनाती है और समाज में इसकी बहुत आवश्यकता है।

**4. प्रार्थना और सफलता**

सच्ची भावना से की गई प्रार्थना और निष्ठापूर्वक किया गया कर्म सफलता की गारंटी है। महात्मा गांधी के अनुसार, प्रार्थना आत्मा की पुकार है और यह आत्मशुद्धि का आह्वान है। प्रार्थना के साथ किया गया कर्म व्यक्ति को अहंकार से दूर रखता है और उसे अपनी मंजिल तक पहुंचने में मदद करता है।

**5. प्रार्थना और धर्म**

विभिन्न धर्मों की पूजा विधियाँ भले ही अलग हों, किंतु प्रार्थना के अंतरस्वर एक ही होते हैं। प्रार्थना ईश्वर और मानव के प्रति एकत्व का माध्यम है। यह व्यक्ति को आंतरिक बल प्रदान करती है, जिससे वह अपने कर्म में सफल हो सके।

अगर आपको ज्योतिष, वस्तु, तंत्र, मंत्र, यंत्र की कोई भी समस्या है, तो आप मुझे मेरे वट्सएप नंबर पर मैसेज करें या सुबह 10-11 बजे के बीच फोन करें या मेल करें: Shivjyotish9@gmail.com, 09317666790

जय महाकाली!




No comments:

Post a Comment